जिद-जुनून-जज्बा मेरी कॉम के हथियार

जिद-जुनून-जज्बा मेरी कॉम के हथियार Date: 02/12/2018
अक्सर आपने लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि फलां के घर छोरी पैदा हुई है, छोरा हो जाता, तो सही रहता। अगर सोचा जाए, तो गलत भी क्या है, इस देश में लड़कों को हमेशा से ही तर्जी दी गई है। लेकिन, एक बात हमें आज तक समझ नहीं आई कि आख़िर यह फ़र्क पैदा कब से हो गया। हालांकि फ़र्क तो है दोनों में और इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता। लेकिन फिर भी सोचने लायक बात तो है कि फ़र्क पैदा हुआ तो क्यों, जबकि इस ज़मीन पर पहले इंसान आदम और हव्वा थे। ऐसा तो नहीं सुना कि पहले आदम आए और बाद में हव्वा। अगर ऐसा सुना होता, तो मान लेते कि औरत, पुरुष से कमतर है, क्योंकि औरत आदम से बाद में आई, पर इतिहास में ऐसा कहीं नहीं देखने को मिलता कि कौन पहले आया और कौन बाद में। फिर किस हिसाब से औरत को कमतर आंका जाता है।
 
चलिए मान लिया औरत कमतर है, मगर यह दिल क्यों नहीं मान रहा कि औरत कमतर है! अगर बहुत पुराने वक़्त पर एक नज़र डालें, तो भी हमें यही देखने को मिला कि औरत यहां भी आदमी के साथ शाना-बा-शाना (कंधे से कंधा मिलाकर) खड़ी है। मिसाल के तौर पर अगर शिव या राम का नाम लिया गया, तो सीता और पार्वती भी मौजूद रहीं। गणेश जी कि पूजा घर में हुई, तो लक्ष्मी जी को भी कोई नहीं भूला। मां दुर्गा और काली की ताक़त के आगे तो सभी राक्षस तक पनाह मांगते हैं। मुसलमानों में अगर रसूल अल्लाह (पैगंबर साहब या मोहम्मद साहब) को याद किया गया, तो उनकी बेटी जनाबे फातिमा ज़ेहरा को भी इस्लाम फैलाने के लिए बराबरी से याद किया जाता हैं। ईसाई धर्म में अगर ईसा मसीह को याद किया गया, तो मरियम को भी कोई भुला नहीं पाया। अब खुद ही सोचिए, ऐसी कौन सी जगह है, जहां औरतें मर्दों से पिछड़ गई हों! जिस तरह सच के साथ झूठ है, दिन के साथ रात है, उसी तरह औरत के साथ पुरुष का भी वजूद जुड़ा हुआ है, और हमेशा रहेगा।
 
हां, यह कहना गलत नहीं कि आदमी अपनी ताक़त और औरत अपनी नज़ाक़त के लिए ही जानी जाती है। लेकिन इसका यह मतलब हरगिज नहीं कि औरत कमज़ोर है… अगर कोई शक है, तो मां दुर्गा और काली को भूलिएगा मत।
 
इस समाज को पुरुषवादी समाज कहा जाता रहा है और आज भी एक औरत को ख़ुद को साबित करने के लिए बेतहाशा मेहनत-मशक़्क़त करनी पड़ती है। शहरों में तो फिर भी लोग औरतों को कमज़ोर नहीं समझते, लेकिन गांव-देहात में आज भी हालात कुछ बदले नहीं हैं। अगर खेलों की बात की जाए तो फिर तो पूछिए ही मत, औरतों को यहां भी कड़ी मेहनत का सामना करना पड़ता है… मानसिक से लेकर शारीरिक स्तर तक।
 
महिलाओं का शोषण कहां नहीं किया गया, कुछ ने आवाज़ उठाई, तो कुछ की आवाज़ दबा दी गई और कुछ ने आवाज़ उठाना जरूरी ही नहीं समझा। आज हम आपको एक ऐसी ही महिला के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसने एक लड़की होकर एक पुरुषवादी समाज में न सिर्फ ख़ुद की जगह बनाई, बल्कि औरतों की ताक़त को कम आंकने वालों के मुंह पर भी चुप्पी लगवा दी। इस महिला की एक ख़ासियत यह भी है कि इसने औरतों की ताक़त को शारीरिक तौर से नहीं, बल्कि इरादों की मज़बूती की बुनियाद पर तरजीह दी। तभी तो शायद कहा जाता है कि इरादे मज़बूत हों, तो बड़ी से बड़ी मुश्किल भी आसान हो जाती है। तो आइए जानते हैं ‘आईरन लेडी’ की उपाधि से विभूषित एमसी मेरी कॉम के बारे में चंद बातें-
 
 
नाम :  मांगते चंग्नेइजैंग मेरीकॉम
 
जन्म : 1 मार्च 1983 (35 साल), कांगथेई (मणिपुर)
 
पेरेंट्स : एम टोंपू कॉम (पिता) तथा सूनेखम कॉम (मां)
 
शादी : के. ओनलर कॉम (2005)
 
बच्चे :  खुपनिवार कॉम, रेचुंग्वर कॉम, प्रिंस चुंगथांगलें कॉम
 
करियर : क्रिश्चियन मॉडल हाई स्कूल तथा सेंट जेवियर, मोइरांग, मणिपुर के स्कूल में उनके पिता ने बड़ी मुश्क़िल से दाखिला दिलवाया। हाई स्कूल की परीक्षा में पास नहीं हो सकीं और फिर उन्होंने स्कूल न जाने का मन बना लिया, क्योंकि सही मायनों में उनका दिल बॉक्सिंग में ही लगा हुआ था। फिर स्कूल की फीस, जो उनके घरवाले बड़ी मुश्क़िल से जुटा पा रहे थे, उसे वह बर्बाद नहीं करना चाहती थी। आखिरकार उन्होंने राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय से परीक्षा देने का निर्णय लिया।
 
पर्सनल लाइफ : मेरी की तीन बहनें व एक भाई है। घर के हालात अच्छे न हो पाने की वजह से घरवाले परेशान थे। मेरीकॉम के पास अच्छे खाने तक का इंतेज़ाम नहीं था। ऐसी हालत में बॉक्सिंग के फील्ड में ख़ुद को पहचान दिलाने का जूनून अगर कोई रख सकता था, तो शायद कहना गलत नहीं होगा कि वह सिर्फ मेरीकॉम ही हो सकती थी। मेरी ने कभी हार नहीं मानी, चाहे हालात कैसे भी रहे हों… वाकई ज़िद, जुनून, मज़बूत इरादा और न हारने की सनक ही मेरी को दूसरों से अलग दिखाती है। उनकी रोल मॉडल लैला अली थीं। साल 2000 में मेरी ने राज्य चैंपियनशिप महिला बॉक्सिंग में सफलता हासिल की। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी ‘किलर इस्टिंक्ट’ की वजह से वह एक के बाद एक पदक जीतती रहीं।
 
अपनी ज़िंदगी में हर कदम पर उन्होंने अपने पति को अपने साथ खड़े पाया, कहना गलत नहीं होगा कि अगर आज वह बेपरवाह होकर रिंग में क़ामयाबी पाती है, तो इस बात के पीछे भी उनके पति का ही हाथ है, वर्ना 3 छोटे बच्चों की मां होने के बाद कोई अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछा कैसे छुड़ा सकता है! लेकिन, उनके पति ने हर क़दम पर उनका साथ दिया। कहावत भी है कि हमसफ़र अच्छा हो, तो मंज़िलें ख़ुद-ब-ख़ुद आसान होती चली जाती हैं। भले ही मेरी के लिए सब कुछ बहुत मुश्क़िल रहा, पर जीवनसाथी पाने के मामले में वह बहुत लकी रहीं। कभी-कभी तो उनके पिता भी उनके इस जुनून से तंग हो जाते थे और सोचते थे कि शादी हो गई है, बच्चे हों गए हैं, तो शायद बॉक्सिंग छोड़ देगी। लेकिन, मेरी की ज़िद के आगे सब लोग बेबस थे, चाहे वे उनके घरवालें हों या परेशानियां। यह कहना गलत नहीं होगा कि मैरी के पिता ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी बेटी इतना आगे तक जाएगी और देश का नाम रोशन करेगी। तभी तो आज उनके घरवाले ही नहीं, बल्कि पूरा देश उन पर गर्व कर रहा है।
 
ऐसे चर्चा में आईं : नई दिल्ली में आयोजित 10वीं एआईबीए महिला विश्व मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप में 24 नवंबर, 2018 को गोल्ड मेडल जीत कर उन्होंने 6 वर्ल्ड चैंपियनशिप जीतने वाली पहली महिला बन गई और इस तरह अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज करवा लिया।
 
मेरी की अब यही ख़्वाहिश है कि देश के कोने-कोने से लड़कियां आगे बढे और बॉक्सिंग में नाम कमाएं। जैसी परेशानियां उन्होंने झेलीं, अब कोई और न झेले। बारहाल हम भारत की इस बहादुर बेटी के ज़ज़्बे और जुनून को सलाम करते हैं, जिसने औरत के वजूद को क़ायम किया हुआ हैं, और हर महिला को यह एहसास दिलाया है कि एक औरत अगर ठान ले, तो क्या न कर गुज़रे, देर है तो अपने अंदर की ज़िद और जुनून को जगाने की।

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