अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा अचानक से गर्माने लगा है। सीधे तौर पर इसका एक कारण 2019 का लोकसभा चुनाव माना जा सकता है। भले ही भाजपा 26 साल से राम मंदिर निर्माण का मुद्दा अपने सीने से लगा कर बैठी हो, लेकिन यह भी सच है कि भारी बहुमत से केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद भी, भगवान राम अयोध्या में अपने सिर पर छत की राह देख रहे हैं। आगामी लोकसभा चुनावों में करीब 6 महीने का समय शेष है और भाजपा के सहयोगी हिंदू संगठन राम मंदिर निर्माण को लेकर अचानक से एक्टिव हो गए हैं। ऐसे में दो सवाल उठते हैं। एक, तो यह कि ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे नारे लगा कर विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने और ऐतिहासिक जीत दर्ज कराने वाली भाजपा का मुद्दा अब विकास से हट कर मंदिर पर आ गया है! दूसरा, यह कि भाजपा इन पांच सालों में इतना ‘विकास’ कर ही नहीं पाई कि वह जनता को अपना रिपोर्ट कार्ड दिखा कर उनसे वोट मांग सके।
इन सवालों के बीच एक बात और गौर करने वाली है कि राम मंदिर निर्माण का मुद्दा भाजपा नहीं, बल्कि उसकी सहयोगी संगठनें उठा रही हैं। संघ से लेकर विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना तक राम मंदिर निर्माण पर अब आर-पार के मूड में हैं। अयोध्या में अपनी उग्र रैलियों और बैठकों के माध्यम से वह केंद्र सरकार पर अध्यादेश लाकर रामलला के मंदिर निर्माण की मांग कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद भाजपा दबाव में आती दिख नहीं रही है, क्योंकि खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह यह कह चुके हैं कि मामला सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है। और, वह इस मामले में जनवरी में होने वाली सुनवाई का इंतजार करेंगे। अध्यादेश के बारे में वे लोग नहीं सोच रहे। ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ का भी कहना है। मामला कोर्ट में है, अध्यादेश लाने पर विचार नहीं कर रहे, दोनों समुदायों के बीच आपसी सहमति बन नहीं रही और फिर मंदिर निर्माण में देरी से हिंदू सेंटिमेंट भी हर्ट हो रहा है। इसलिए बीच का रास्ता निकालते हुए सरयू नदी पर श्रीराम की सबसे ऊंची प्रतिमा लगाने वाला काम जोर पर चल रहा है।
पिछला चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा तो, अब राम मंदिर का मुद्दा इतना क्यों उछल रहा है?
इस बात में कोई शक नहीं है कि 2014 का पूरा चुनाव भाजपा ने सिर्फ और सिर्फ विकास के मुद्दे पर लड़ा था। लेकिन, भाजपा क्योंकि अयोध्या में राम मंदिर बनवाने को लेकर प्रतिबद्ध है, तो उसके मैनिफेस्टो में भगवान राम को प्रमुखता से जगह दी गई। इसलिए समय-समय पर उसे उसके वादे याद दिलाए जाते हैं। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं, जिसमें भाजपा जी-जान झोंके हुई है। पांच में से दो राज्यों मध्य प्रदेश और राजस्थान ने भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर रखी है, क्योंकि अब तक के चुनावी आंकड़े इन दो राज्यों में भाजपा की स्थिति कमजोर दिखा रहे हैं। राजस्थान का चुनावी इतिहास कुछ ऐसा रहा है कि वहां हर साल सत्ता बदलती रहती है, लेकिन मध्य प्रदेश में 10 साल से शिवराज सिंह चौहान की सरकार है। लेकिन, फिर भी वहां की जनता में मामा के प्रति नाराजगी देखी जा रही है। इसके अलावा बात करें राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया की, तो उनकी सरकार में भी राजस्थान काफी अस्थिर रहा।
ऐसे में विकास की बात करें, तो अगर इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने अच्छा काम किया होता, तो शायद वहां सत्ता विरोधी लहर नहीं दिखाई दे रही होती। ऐसे में शायद यह भी हो सकता है कि भाजपा विधानसभा चुनावों के माध्यम से, यह टटोलना चाह रही हो कि राम मंदिर का मुद्दा उन्हें चुनावों में फायदा दिलवा सकता है या नहीं। विधानसभा चुनावों के रिजल्ट के आधार पर जनता का मूड समझते हुए आगे की रणनीति बनाई जाएगी। तब तक जनवरी में सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई का इंतजार ही ठीक रहेगा।
वैसे भी लोकसभा चुनावों के ऐलान फरवरी में होने हैं। ऐसे में अभी अध्यादेश लाना एक तरह जल्दबाजी होगी। सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई के बाद उसका रुख भी साफ हो जाएगा। ऐसे में सरकार को राम मंदिर पर अध्यादेश लाने के लिए काफी वक्त मिल जाएगा। लोकसभा चुनावों से इतने पहले अध्यादेश लाना यकिनन उनके लिए हर तरफ से फायदेमंद ही होगा।