काशी के रण से आउट हुए BSF से बर्खास्त जवान तेजबहादुर, जानिए अब कैसी रह गई लड़ाई

काशी के रण से आउट हुए BSF से बर्खास्त जवान तेजबहादुर, जानिए अब कैसी रह गई लड़ाई Date: 02/05/2019
सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के बर्खास्त सिपाही तेज बहादुर यादव के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने के मंसूबों पर पानी फिर गया है. तेज बहादुर का नामांकन बुधवार को रद्द हो गया. निर्वाचन अधिकारी की ओर से जारी किए गए नोटिस का जवाब देने तेज बहादुर यादव बुधवार को अपने वकील के साथ निर्वाचन अधिकारी से मिलने पहुंचे थे. जिसके बाद निर्वाचन अधिकारी ने तेज बहादुर के नामांकन पत्र को खारिज कर दिया.
 
तेज बहादुर यादव ने पहले निर्दलीय फिर समाजवादी पार्टी (सपा) के चुनाव चिन्ह पर नामांकन किया था. एक नामांकन-पत्र में उन्होंने बताया था कि उन्हें भ्रष्टाचार के कारण सेना से बर्खास्त किया गया था लेकिन दूसरे नामांकन में उन्होंने इसकी जानकारी नहीं दी थी. मंगलवार को पर्चों की जांच के बाद जिला निर्वाचन कार्यालय ने तेजबहादुर को नोटिस जारी करते हुए एक मई तक जवाब देने का समय दिया था. वहीं, अब नए समीकरण के तहत शालिनी यादव सपा की तरफ से चुनावी मैदान में प्रधानमंत्री मोदी को टक्कर दे सकती हैं. हालांकि यह इस पर निर्भर करता है कि सपा अपना चुनाव चिह्न शालिनी यादव को देती है या नहीं.
 
9 जनवरी, 2017 को हरियाणा के रेवाड़ी के तेज बहादुर यादव ने जवानों को परोसे जा रहे खाने का विडियो सार्वजनिक कर पूरे देश का माहौल गरमा दिया था. यादव ने कुछ विडियो पोस्ट किए थे, जिनमें सिर्फ हल्दी और नमक वाली दाल और साथ में जली हुई रोटियां दिखाते हुए खाने की क्वालिटी पर उन्होंने सवाल उठाए थे. वीडियो में उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान से सटी नियंत्रण रेखा समेत कई स्थानों पर इस प्रकार का खाना दिया जाता है और कई बार जवानों को भूखे पेट सोना पड़ता है.
 
वीडियो के सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और बीएसएफ से मामले पर विस्तृत रपट मांगी थी. इस बीच तेजबहादुर ने वीआरएस के लिए आवेदन किया था, जिसे मंजूर नहीं किया गया बल्कि उन्हें निर्देश दिया गया कि जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, वह बीएसएफ नहीं छोड़ सकते. इसके विरोध में तेज बहादुर राजौरी स्थित मुख्यालय में भूख हड़ताल पर बैठ गए थे. 19 अप्रैल को तेज बहादुर को बीएसएफ से बर्खास्त कर दिया गया. उन पर सीमा सुरक्षा बल का अनुशासन तोड़ने को लेकर जांच की गई थी. बर्खास्त किए जाने के बाद तेजबहादुर ने फौजी एकता न्याय कल्याण मंच नामक एक एनजीओ बनाया और अब वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनावी मैदान में कूद गए.
 
अब सवाल है कि सपा उम्मीदवार तेज बहादुर का पर्चा रद्द होने के बाद बनारस की चुनावी लड़ाई पर क्या असर पड़ सकता है. तकनीकी तौर पर इसका बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि तेज बहादुर अगर लड़ाई से बाहर हुए हैं तो शालिनी यादव का प्रवेश भी संभव हुआ है लेकिन शालिनी यादव का सियासी कद ऐसा नहीं है कि वे प्रधानमंत्री मोदी के वोटों पर असर डाल सकें. इसे समझने के लिए हमें पिछले चुनाव पर नजर डालना होगा.
 
2014 के चुनाव में भी सपा ने बनारस में अपना उम्मीदवार उतारा था. बसपा ने भी अपना कैंडिडेट दिया था. यह अलग बात है कि उस चुनाव में सपा और बसपा अलग अलग चुनाव लड़े थे लेकिन दोनों के वोट का गणित काफी निष्प्रभावी रहा था. 2014 में सपा के कैलाश चौरसिया को 45,291 और बसपा के विजय प्रकाश जायसवाल को 60,579 वोट हासिल हुए थे. हालांकि उस वक्त आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल बड़ा फैक्टर थे जिन्हें दो लाख से कुछ अधिक वोट मिला था.
 
कांग्रेस की तरफ से अजय राय इस बार भी हैं और पिछले बार भी थे लेकिन उन्होंने भी कोई असर नहीं छोड़ा था. अजय राय तीसरे स्थान पर रहे थे. उसके बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी वह पिंडरा सीट पर तीसरे स्थान पर रहे थे. लगातार दो चुनाव हार चुके राय को भी कांग्रेस इस बार मजबूत उम्मीदवार बता रही है. इस बार अरविंद केजरीवाल जैसा कोई बड़ा चेहरा बनारस से नहीं है, इसलिए ऐसा मान सकते हैं कि बीजेपी विरोधी वोट कांग्रेस और सपा उम्मीदवार के लिए गोलबंद हों लेकिन इसका पैनापन ऐसा नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी के विजय पर ब्रेक लग जाए.
 
अब बात शालिनी यादव की. सपा-बसपा गठबंधन की संभावित उम्मीदवार शालिनी यादव के परिवार का कांग्रेस से पुराना रिश्ता रहा है. वे कांग्रेस के दिवंगत नेता और राज्यसभा के पूर्व उपसभापति श्यामलाल यादव की पुत्रवधू हैं. बनारस में मेयर के चुनाव में उन्हें मात्र 1.13 लाख वोट मिले थे और वह चुनाव हार गई थीं. इससे अंदाजा लगाना आसान है कि शालिनी यादव का प्रभाव वाराणसी लोकसभा चुनाव पर कितना असरकारी होगा. कांग्रेस और सपा-बसपा गठबंधन चाहे जो कहें लेकिन नरेंद्र मोदी के खिलाफ जैसे उम्मीदवार उतारे गए हैं उससे यही कहा जा सकता है कि इस बार वाराणसी का चुनाव चर्चा से बाहर हो गया है. एक तरह से विपक्षी दलों ने नरेंद्र मोदी को वॉकओवर दे दिया है.
 
पिछले चुनाव का लब्बोलुआब बताता है कि नरेंद्र मोदी 2014 में एक खास रणनीति के तहत वाराणसी गए थे. वे अपने मकसद में कामयाब भी हुए. इस बार भी ऐसा ही है. शुरू में ऐसा लगा कि विपक्षी दल मोदी को घेरने के लिए कोई साझा उम्मीदवार उतारेंगे लेकिन ऐसा नहीं हो सका. इसके संकेत पहले से ही मिलने शुरू हो गए थे क्योंकि वाराणसी से विपक्षी उम्मीदवारों की घोषणा में देरी ने इस संभावना को पूरा बल दे दिया. कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी की उम्मीदवारी की चर्चा चल पड़ी थी. लोगों में उत्सुकता बढ़ी थी लेकिन पहले शालिनी यादव और फिर अजय राय की उम्मीदवारी की घोषणा के साथ ही वाराणसी सीट को लेकर लोगों की उत्सुकता खत्म हो गई. कांग्रेस के लिए घाटे की बात ये रही कि ऐन वक्त प्रियंका गांधी का चुनाव न लड़ना और अजय राय की उम्मीदवारी ने कांग्रेस को ज्यादा तैयारी करने का मौका नहीं दिया. इतना जरूर है कि कांग्रेस ने अजय राय की जगह वाराणसी में कोई मजबूत प्रत्याशी दिया होता तो लड़ाई दिलचस्प होती और आसपास की सीटों पर भी इसका प्रभाव दिखता पर ऐसा नहीं हो सका.

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