कसमें वादे प्यार वफा सब, वादे हैं वादों का क्या… 16वीं लोकसभा अगले वर्ष समाप्त होनेवाली है। इसके साथ ही नए साल में लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू है। संसद के कई सत्र आए और चले गए, लेकिन संसद और विधानसभा में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण के वादों की पोटली धरी-की-धरी ही रही गई। सत्तासीन भाजपा ने तत्कालीन चुनाव के समय अपने घोषणा पत्र में महिला आरक्षण सहित कई अन्य विषयों को लेकर अभियान और कानून बनाने तक की बात कही थी, लेकिन सब सिफर ही रहा। भाजपा के चुनावी घोषणापत्र के अब लगभग साढ़े चार वर्ष हो गए, लेकिन भाजपाइयों द्वारा इस पर किसी प्रकार की बेचैनी लोगों, खासकर महिलाओं को नहीं दिखाई दे रही है।
भाजपा ने 2014 में लोकसभा चुनाव से पूर्व कई वादे किए थे। ये वादे सिर्फ जुबानी नहीं, बल्कि लिखित थे। इसमें एक वादा था संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का कानून बनाने का, लेकिन वादे सिर्फ वादे ही रहे। उम्मीद है कि इस वादे को फिर से 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया जाएगा और महिलाओं के शुभचिंतक बनने की कहानी नए सिरे से गढ़ी जाएगी।
संसद का शीतकालीन सत्र भी 11 दिसंबर से 8 जनवरी, 2018 तक चलेगा। संभवतः जनता को दिखाने के लिए महिला आरक्षण का शगूफा एक बार फिर छोड़ा जाए, लेकिन परिणाम सबको पता है कि बिल को पास करवाने की कोई जोर-आजमाइश शायद ही हो। उसी प्रकार, जिस प्रकार संसद का मॉनसून सत्र बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गया। मानसून सत्र में बहुत सारी विधेयकों पर चर्चा हुई और बहुत से विधेयक पारित भी हुए। जिस विधायक के पारित होने की संभावना थी, वही पास नहीं हो सका। यह बिल था महिलाओं के आरक्षण का। यह बिल संसद में चर्चा से दूर ही रही। लोग बस उम्मीद ही लगाए रहे, नतीजा सिफर ही निकला।
महिला आरक्षण बिल संसद में पास नहीं हो सका, इसका अपराधी कोई एक दल नहीं है, बल्कि सभी इसके बराबर के हकदार हैं। भाजपा की सरकार हो या कांग्रेस की, सबने देश की आधी आबादी को ठगा है। हर बार महिलाओं को मात्र छला गया है। सभी दल जनता के सामने रोना रोते रहे और आरोप विपक्षियों पर लगाते रहे। आरोप सिर्फ वर्तमान सरकार पर ही नहीं लगाया जा सकता। कितनी ही सरकार आई और गई, लेकिन महिला आरक्षण बिल की नियति कोई नहीं लिख सका। ज्ञात हो कि इस बिल के अनुसार भारत सरकार के निचले सदन में सभी सीटों का 33 प्रतिशत हिस्सा आरक्षित करने का प्रस्ताव रखा है। इसके अंतर्गत लोकसभा और महिलाओं के लिए सभी राज्य विधानसभाओं में सीटों को चक्रन प्रणाली (यानी एक सीट लगातार तीन आम चुनावों में एक बार आरक्षित होगी) में आरक्षित करने का प्रस्ताव रखा गया था।
जनता भी इस सच को जानती है कि सभी दल एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। कोई भी दूध का धुला नहीं है। तभी तो सत्तासीन या विपक्ष द्वारा इस बिल को पास कराने के लिए कोई गंभीर कोशिश कभी नहीं की जाती। सभी अप्रत्यक्ष महिला आरक्षण बिल को पास नहीं होने की हर जुगत में रहते हैं। लेकिन, वहीं सरकार इस बिल को पास करवाने का श्रेय भी लेना चाहती है, ताकि महिलाओं की ओर से उनका स्थायी वोट बैंक बन जाए।
बता दें कि महिला आरक्षण बिल काफी समय से लटका हुआ है। वर्ष 1996 में तत्कालीन पीएम एचडी देवगौड़ा के कार्यकाल में इस बिल को पास किया गया था। वर्ष 2010 में राज्यसभा में पास होने के बाद यह बिल लोकसभा में पास नहीं हो सका। ओबीसी की राजनीति कहें या फिर कहें कि पुरुषों की राजनीति, जिसकी वजह से यह महिला आरक्षण बिल आज भी अधर में लटका हुआ है। इससे उन सांसदों को खतरा है, जो संसद के एक कार्यकाल के लिए एक तिहाई उम्मीदवार खो देंगे, क्योंकि रोटेशन में ही आरक्षण मिलेगा और इसमें एक तिहाई चुनाव क्षेत्रों पर गाज गिरेगी। ऐसे में पुरुष सांसद सत्ता और ताकत के बंटवारे के लिए तैयार नहीं हैं।
यह भी सच है कि 2010 में राज्यसभा में पारित होने पर लोकसभा में अगर भाजपा इस बिल को लेकर कांग्रेस का समर्थन कर देती, तो यह कानून बन चुका होता। ऐसे में राजद, जदयू और सपा के समर्थन की जरूरत नहीं पड़ती। जबकि, अन्य छोटी क्षेत्रीय पार्टियां पहले से ही महिला आरक्षण के पक्ष हैं।
यही वजह है कि महिलाओं को लेकर चुनावी ताना-बाना बुन रही भाजपा को चुनाव से पहले घेरने के लिए कांग्रेस ने महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में फिर से एक बार उठाएगी। सुर्खियां बटोरने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर आग्रह भी किया था कि संसद के मानसून सत्र में महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराया जाए। उन्होंने अपने पत्र में कहा था कि इस विधेयक पर उन्हें विपक्ष का पूर्ण समर्थन मिलेगा। उन्होंने कहा था कि महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए।
ज्ञात हो कि पिछले वर्ष कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी इस मामले को लेकर पीएम को पत्र लिखा था। पहले सोनिया गांधी ने तो उसके बाद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे को दुबारा प्रकाश में ला दिया। वजह साफ है कि अगर यह विधेयक पारित हो जाता, तो इसमें कांग्रेस को भी कुछ श्रेय जरूर मिलता। लेकिन महिला आरक्षण का गोल एक पार्टी से दूसरे पार्टी की ओर फेंका जा रहा है। सभी अपनी जिम्मेदारी से भागते नजर आ रहे हैं। वर्तमान समय की बात करें तो मुख्य दोषी वही होता है जिसके पास सारे अधिकार रहते हुए भी वह उसका उपयोग नहीं करता। इस हिसाब से महिला आरक्षण का बिल पास नहीं होने की सबसे बड़ी दोषी भाजपा सरकार है। इस बिल को लेकर भाजपा की इच्छाशक्ति में हमेशा से कमी नजर आती रही है जो आज भी जारी है।