12 मार्च 1993 का दिन था. मायानगरी बॉम्बे (अब मुंबई) में रोज की जिंदगी दौड़ रही थी. लेकिन दोपहर 1 बजे के बाद वो दौड़ता शहर थम सा गया था. एक के बाद एक लगातार 12 धमाकों ने शहर को दहला दिया था. शहर में सीरियल ब्लास्ट हुए थे. उन धमाकों में 257 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 1400 लोग किसी न किसी तरह से जख्मी हो गए थे. अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर हम मुंबई ब्लास्ट का जिक्र आज क्यों कर रहे हैं. दरअसल, मालेगांव की तरह मुंबई ब्लास्ट में भी एक गाड़ी का एंगल था.
रुबीना का वैन कनेक्शन
बॉम्बे शहर को 2 घंटे 10 मिनट में तबाह करने के लिए कई स्थानों पर बम प्लांट किए गए थे. बम प्लांट करने के लिए जिस गाड़ी का इस्तेमाल किया गया था, उसका रजिस्ट्रेशन एक महिला के नाम पर था. हालांकि बताया गया था कि वो महिला उस गाड़ी का इस्तेमाल नहीं करती थी.
दरअसल, उन सीरियल धमाकों के बाद पुलिस की 150 सदस्यों वाली टीम आरोपियों को पकड़ने के लिए लगाई गई थी. जिसका नेतृत्व डीसीपी राकेश मारिया कर रहे थे. जब पुलिस धमाकों से जुड़ी सारी कड़ियों को जोड़ने की कोशिश कर रही थी, उसी दौरान जांच पड़ताल के बीच पुलिस के हाथ एक और एक स्कूटर लगा था. उन दोनों वाहनों में हैंड ग्रेनेड और अन्य हथियार मौजूद थे.
जाहिर तौर पर वैन और स्कूटर पुलिस के लिए आरोपियों तक पहुंचने का बड़ा जरिया था. लिहाजा जांच के दौरान पुलिस को पता चला कि वो वैन एक महिला के नाम पर रजिस्टर्ड थी. उस महिला का नाम था रुबीना मेमन. उसका कसूर ये भी था कि वो मुंबई धमाकों के साजिशकर्ता टाइगर मेमन की रिश्तेदार भी थी. उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
पुलिस ने सीरियल ब्लास्ट मामले की चार्जशीट में उसे भी आरोपी बनाया था. इस मामले की सुनवाई टाडा अदालत में चलती रही और धमाकों के 13 साल बाद 2006 में मुंबई की टाडा कोर्ट ने रुबीना को तीन अन्य आरोपियों के साथ उम्रकैद की सजा सुनाई थी. हालांकि उसके पति सुलेमान को इस मामले में बरी कर दिया गया था. तब रुबीना और उसके वकील ने कोर्ट को बताया था कि वैन भले ही उसके नाम पर थी लेकिन वो उसका इस्तेमाल नहीं करती थी. उसे उनका कोई रिश्तेदार चलाता था.
इसके बाद दिसंबर 2016 में मुंबई हाई कोर्ट ने रुबीना मेमन की फरलो पर रिहा करने की मांग वाली याचिका को भी खारिज कर दिया था. क्योंकि उसे टाडा अदालत ने आतंकी गतिविधियों में संलिप्त रहने के मामले में दोषी करार दिया था. तभी से रुबीना पुणे की यरवदा जेल में बंद है. उस मामले के मुख्य आरोपियों को तो सजा हो चुकी है. कुछ आरोपी अभी फरार हैं. 16 जून 2017 को टाडा कोर्ट ने इस मामले में 7 दोषियों पर फैसला सुनाया था.
साध्वी प्रज्ञा का मोटरसाइकिल कनेक्शन
मालेगांव ब्लास्ट केस में आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ जांच एजेंसियों को कई अहम सबूत मिले थे. उनमें सबसे अहम सबूत था, धमाके में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल, जो प्रज्ञा सिंह के नाम पर पंजीकृत थी. इसके अलावा साध्वी प्रज्ञा और संदिग्ध हमलावर के बीच फोन पर हुई बातचीत कुछ अंश एजेंसियों को मिले थे. जिससे पता चला था कि धमाके की साजिश रचने के लिए भोपाल में एक बैठक आयोजित की गई थी. जिसमें साध्वी भी मौजूद थी.
दरअसल, महाराष्ट्र आतंकवाद-रोधी दस्ते (एटीएस) ने उसे मालेगांव विस्फोट के प्रमुख षड्यंत्रकारियों में से एक बताया था. 29 सितंबर, 2008 मालेगांव में हुए ब्लास्ट के दौरान 7 लोग मारे गए थे जबकि 101 लोग घायल हो गए थे. अक्टूबर 2008 में प्रज्ञा सिंह को गिरफ्तार किया गया था. वर्तमान में वो गैरकानूनी गतिविधि अधिनियम (रोकथाम) समेत हत्या, हत्या के प्रयास, आपराधिक साजिश, और धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने जैसे आरोपों का सामना कर रही है.
मालेगांव धमाके के बाद कोर्ट ने पाया कि आरोपी प्रज्ञा ने आतंक फैलाने और समाज में सांप्रदायिक दरार पैदा करने के उद्देश्य से इस साजिश की योजना बनाई थी. धमाका करने के लिए बम को एक इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (IED) के साथ गोल्डन रंग की एलएमएल फ्रीडम मोटरसाइकिल में फिट किया गया था. वो मोटरसाइकिल प्रज्ञा सिंह ठाकुर के नाम पर पंजीकृत थी. पहले उसी आधार पर एटीएस ने साध्वी को गिरफ्तार किया था. एटीएस का कहना था कि साध्वी ने अपने करीबी सहयोगी रामजी कलसांगरा को विस्फोट के लिए मोटरसाइकिल मुहैया कराई थी. वो भी इस मामले का एक वांछित आरोपी है.
2011 में इस मामले की जांच एटीएस से लेकर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) को सौंप दी गई थी. मगर 2016 में जब एनआईए ने अपनी पहली फाइनल चार्जशीट कोर्ट में दायर की तो उसमें साध्वी प्रज्ञा को क्लीन चिट दे दी थी. एनआईए ने कहा कि एटीएस ने रिकॉर्ड में जिस अहम सबूत यानी मोटरसाइकिल का जिक्र किया है, उनकी जांच में पाया गया कि वह साध्वी के नाम पर पंजीकृत तो थी, लेकिन उसका प्रयोग प्रज्ञा का करीबी रामचंद्र कलसांगरा करता था. एनआईए का तर्क था कि दो साल से मोटरसाइकिल कलसांगरा चला रहा था इसलिए साध्वी इस घटना से जुड़ी नहीं थी. इसलिए साध्वी के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता था. इसी आधार पर प्रज्ञा सिंह को 9 साल बाद जमानत मिल गई थी.